Saturday, February 7, 2009

छत्तीसगढ़ी के लिए पहल और हलचल


छत्तीसगढ़ी के लिए पहल और हलचल


छत्तीसगढ़ी बोली को राजभाषा का दर्जा मिलने के बाद से यहाँ के बहुत से संगठन और विशेषग्य अपनी ओर से पहल करने लगे हैं। इसी कड़ी में दो दिनों की गोष्ठी में भी रायपुर में देश भर के कुछ विद्वान आमंत्रित थे. इन सभी ने एक बात बहुत अच्छी कही की बोली के विकास का मतलब यह कदापि नहीं है की हम देश और राष्ट्र भाषा को भूल जाएँ. जब जय हिंद कहा जाता है, तो उसमे जय छत्तीसगढ़ या जय महाराष्ट्र भी अंतर्निहित रहता ही है. इसे अलग से बोलने की जरुरत नहीं होती. लेकिन दुर्भाग्य से पिछले कुछ वर्षों से यह देखा जा रहा है कि जय महाराष्ट्र या जय असम का अर्थ यह लगाया जा रहा है, जैसे अन्य किसी राज्य को इसमें शामिल ही नहीं होने दिया जायेगा. अगर इसी को बोली का विकास कहकर प्रचारित किया जा रहा है, तो यह केवल भ्रम ही है. उसके सिवाय कुछ भी नहीं. आंचलिकता तो भारत की जान है, पहचान है. लेकिन इसका अभिप्राय यह कतई नहीं होता कि इससे अन्य क्षेत्र के प्रति दुश्मनी या अलगाव की भावना को बढावा दिया जाये. निश्चित ही आंचलिक बोलियों को समृद्ध करने के लिए हर स्तर पर प्रयास जरुरी हैं, वर्ना जिस तरह कि भाषा संस्कृति अभी हमारे देश में चल रही है, उसमे यह कोई आश्चर्य नहीं कि आने वाले ५० वर्षों में भारत से बहुत सी बोलियों का अस्तित्व ही समाप्त हो जायेगा. गाँव से जो नयी पीढी शहर आकर अंग्रेजी पढ़ रही है, उसका अपनी स्थानीय बोली से संपर्क टूटता जा रहा है. यह संकट वाकई बहुत गंभीर है. यह सचमुच सराहनीय है कि छत्तीसगढ़ी को लेकर अभी से चिंता होने लगी है. इसी तरह के प्रयास निरंतर होते रहे तो इस बोली को भाषा के रूप में स्थापित होने में देर नहीं लगेगी. इतना जरुर है कि जो लोग इस नयी भाषा कि स्थापना में जुटे हुए हैं, उन्हें हिन्दी या अन्य भाषाओँ के प्रति भी सम्मान को न सिर्फ बताना होगा, बल्कि जन सामान्य के बीच स्थापित भी करना होगा. किसी भी परंपरा के निर्माण में जो लोग बुनियाद के स्तर पर करी करते हैं, उनकी जिम्मेदारी हमेशा बहुत ज्यादा और अहम होती है. छत्तीसगढ़ी के कर्णधारों को भी इस जिम्मेदारी को समझना होगा.------







Thursday, February 5, 2009

किसे फ़िक्र है रायपुर के विकास की ?

किसे फ़िक्र है रायपुर के विकास की ?
रायपुर नगर निगम हमेशा की तरह इस बार भी कुछ महत्पूर्बं इलाकों में तोड़-फोड़ की कार्रवाई कर रहा है. हमेशा की तरह इस बार भी कुछ व्यापारी नेता बनकर अपनी राजनीति चमका रहे हैं. हो सकता है की नगर निगम की इस कार्रवाई में कुछ खास इलाके पहले निशाने पर आ गए हों, लेकिन ऐसा तो पहली नज़र में प्रतीत नहीं होता की नगर निगम के आयुक्त ने निजी प्रतिशोध की भावना से प्रेरित होकर किसी व्यापारी को परेशां करने के लिए यह कार्रवाई की हो. आश्चर्य तो यह है की तोड़-फोड़ के खिलाफ तो स्थानीय नेता अपनी राजनीति चलने के लिए हमेशा धरना प्रसर्शन करते देखे जाते हैं, लेकिन जब अवैध कब्जा हो रहा होता है, तब ये नेता शहर को सुंदर बनाने के लिए आगे नहीं आते. बल्कि देखा तो यह भी जाता है कि बहुत से नेता जान-बूझकर झुग्गी बस्तियों का निर्माण करवाते हैं, ताकि उनका वोट बैंक तैयार हो जाये. और जब नगर निगम झुग्गी बस्तियों के खिलाफ कार्रवाई करता है तो यही नेता निगम के अधिकारीयों के खिलाफ राजनितिक मोर्चा खोल देते हैं. सवाल यह है, कि शहर के विकास कि जिम्मेदारी किसकी है, केवल निगम आयुक्त की या उनकी भी जो अपने को शहर का ठेकेदार मानते हैं ? निगम आयुक्त तो छः महीने या साल भर में बदल दिए जाते हैं. वैसे भी जिस अधिकारी को चापलूसी नहीं भाति या नहीं आती, उसे तो स्थानीय छुटभैये नेता टिकने कहाँ देंगे ? इसका मतलब यही हुआ कि विकास कि इस शहर में कोई नहीं करेगा. सबको केवल अपने अपने हितों कि चिंता ही बनी रहेगी. नारा देने के लिए हर नेता अखबारों को यह बयान जरूर देता रहेगा कि वह विकास का विरोधी नहीं है, किन्तु विकास किछ शर्तों के अनुसार होना चाहिए. अब ये शर्ते सभी नेताओं कि अपनी अपनी भी हो सकती हैं. इस सभी शर्तों में से सबको स्वीकार्य शर्तों को निकलने का प्रयास किया जाए तो ऐसा भी हो सकता है कि एक भी शर्त न निकले. क्योंकि सबको अपनी-अपनी जिद्द होगी और कोई दूसरा नेता या प्रतिनिधि अन्य व्यक्ति कि शर्त पर शायद ही राजी हो पायेगा. इस खींच-तान में शहर की फ़िक्र किसे रह जायेगी, यह सहज ही सोचा जा सकता है. इसलिए तब एक सर्व-सुविधायुक्त राय यही उभरेगी कि रायपुर की सुन्दरता और इसके विकास की बात को फिलहाल ठंडे बस्ते में दाल दिया जाये और परेशानी पैदा करने वाले अधिकारी का तबादला करा दिया जाये. अगर आने वाले दिनों में ऐसा वास्तव में हो जाये तो इसमें भला कैसा आश्चर्य?
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Monday, February 2, 2009

विकलांग जोडों ने बढाया छ.ग. का मान

विकलांग जोडों ने बढाया छ.ग. का मान
छत्तीसगढ़ विभिन्न कारणों से डेश में चर्चित होता रहा है. हाल के वर्षों में नक्सली समस्या ने अक्सर छत्तीसगढ़ का नाम नकारात्मक कारणों से उछाला है. लेकिन इसी दौरान कई सकारात्मक बातें भी राज्य में हुई हैं, किनकी वजह से राज्य का नाम ऊंचा हुआ है. इन्ही कुछ सकारात्मक बातों में से एक है हाल ही में हुआ विकलांग जोडों का सामूहिक विवाह कार्यक्रम. अखिल भारतीय विकलांग सेवा समिति की ओर से हुए इस आयोजन में नब्बे जोडों ने विवाह बंधन स्वीकार किया. कार्यक्रम की भव्यता का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि यह आयोजन लिम्का बुक ऑफ़ रेकॉर्ड्स में भी दर्ज होने जा रहा है. छत्तीसगढ़ के लिए गर्व की बात यह भी रही कि इस आयोजन में राज्य के विभिन्न जिलों के विकलांग याओं के अलावा अन्य प्रान्तों से भी विवाह योग्य युवाओं ने रूचि दिखाई. इस आदिवासी अंचल कि पहले भी यही पहचान रही है कि यहाँ सामाजिक सदभावना है और लोग एक दूसरे की मदद दिल खोलकर करते हैं. इस आयोजन में लोगों ने बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया. इस तरह के कार्यक्रम न केवल लोगों को अपना जीवन सुधारने की प्रेरणा देते हैं, बल्कि दूसरों के लिए भी एक मिसाल का कायम करते हैं. वैसे छत्तीसगढ़ में राज्य सरकार इसी तरह की एक योजना भी संचालित है, जिसमे विवाह योग्य निर्धन परिवारों के युवाओं का विवाह सरकारी खर्च पर कराया जाता है. इसलिए यह आयोजन कोई नया प्रयास नहीं है. फिर भी एक साथ नब्बे विकलांगों को जीवन बसाने के लिए प्रेरक आयोजन करना हर लिहाज से काबिले-तारीफ तो है ही. सरकार ने भी इस आयोजन के उद्देश्य को प्रोत्साहित करने के लिए सभी विवाहित जोडों को अपनी ओर से सहायता राशि देने की घोषणा की. इसके साथ-साथ घरेलु उपयोग की वस्तुएं भी इन जोडों को दी गई. जब समाज में हर तरफ नकारात्मक घटनाओं को ज्यादा महत्त्व मिल रहा हो और उम्मीद की कोई किरण नज़र नहीं आती हो, तो ऐसे अंधेर में विकलांग विवाह समारोह जैसे प्रयासों से समाज में उन लोगों को एक उत्साह तो अवश्य मिलता है, जो कुछ बेहतर करना चाहते हैं. ऐसे प्रयासों की मुक्त-कंठ से प्रशंसा होनी चाहिए.


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Sunday, February 1, 2009


छत्तीसगढ़ में स्थानीय कुलपति की खोज

रायपुर के प्रतिष्ठित पं. रविशंकर शुक्ल विश्विद्यालय में जल्द ही नए कुलपति की नियुक्ति होने वाली है. इसके लिए राज्यपाल और विश्विद्यालयों के कुलाधिपति ने तीन विशिष्ट महानुभावों की एक समिति बनाई है, जो कुलपति के योग्य तीन उम्मीदवारों के नाम सुझायेगी. इसके पहले कि समिति की पहली बैठक हो पाए, राज्य के विभिन्न संगठनों ने स्थानीय शिक्षाविद को ही कुलपति बनाने की मांग उठाना शुरू क्र दिया है. और बहुत हद तक यह मांग जायज़ भी है. राज्य के बहुत से संगठनों का यह तर्क है कि- जब छत्तीसगढ़ के विद्वानों को राज्य से बाहर के विश्वविद्यालयों में कुलपति बनाने के लिए बहुत कम अवसर दिया गया है, तो फ़िर यहाँ के विश्वविद्यालयों में बाहर के शिक्षाविदों को भी कुलपति बनाने से पहले स्थानीय विद्वानों को वरीयता क्यों नही दी जानी चाहिए ? दूसरी तरफ़, इस मांग के ख़िलाफ़ यह तर्क भी देने वाले कम नहीं हैं कि जब शिक्षा के विकास और उच्छ शिक्षा की गुणवत्ता को सबसे ऊपर रखना हो तो क्षेत्रीयता जैसी संकीर्णता को बढ़ावा नहीं देना चाहिए. बी इशक यह कोई ग़लत तर्क नही है. किंतु जब तक स्थानीय के विद्वानों को अपने ही राज्ये में प्रोत्साहन नहीं मिलेगा तो उन्हें बाहर की संस्थाएं किस अधर पर अपनायेंगी ? अभी तक केवल एक ही बार रायपुर के एक विज्ञान प्रोफ़ेसर को भोपाल के बरकतउल्लाह विश्वविद्यालय का कुलपति बनाया गया था. लेकिन यह घटना राज्य निर्माण से पहले की है. राज्य निर्माण के बाद यह धरना भी प्रबल होकर उभरने लगी है कि अविभाजित मध्यप्रदेश के एक हिस्से के रूप में पहले ही छत्तीसगढ़ की काफी उपेक्षा हो चुकी है. इसलिए अब और उपेक्षा सहन नहीं की जायेगी. इस आधार पर सोचा जाए तो स्थानीय विद्वानों में से ही किसी को कुलपति बनाने की मांग में वजन तो है. पिछले दशक में जब राजनीतिक हितों के लिए एक के बाद एक तीन छोटे राज्य बनाए गए थे, तब भी इस फैसले से आंचलिकता को और अधिक समर्थन मिलने की बात अनेक विचारकों ने आगाह करते हुए कही थी. लेकिन अब यही बात अपने प्रखर रूप में सामने आ रही है, तो इसे खारिज करने कि कोशिशें भी कम नहीं होंगी. तब राजनीतिक लोगों के लिए यही कहना उचित होगा कि, मीठा- मीठा गप- गप और कड़वा- कड़वा थू- थू भला कैसे हो सकता है. इस बार कुलपति चयन में स्थानीयता का मुद्दा निश्चित रूप से प्रखर होने लगा है, और इसे पूरी तरह से नकारा भी नहीं जा सकता.
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फ़िर न हो पोराबाई जैसा मामला

फ़िर न हो पोराबाई जैसा मामला
छत्तीसगढ़ में माध्यमिक शिक्षा मंडल वार्षिक परीक्षा कि तैयारी कर रहा है। पिछली बार जांजगीर-चाम्पा जिले में नकल के सर्वाधिक प्रकरण बने थे। इतना ही नही, जिले में पोराबाई नाम की एक छात्रा का प्रावीण्य सूची में आना ही संदिग्ध हो गया था. वह तो अच्छा हुआ की शिक्षा मंडल के अध्यक्ष ने उस छात्र की कॉपी को आदर्श के रूप में संजोकर रखने के लिए जब मंगाया तो वास्तविकता सामने आ गई. तब शिक्षा मंडल की बहुत बदनामी भी हुई थी. बाद में दसवीं की परीक्षा में भी ऐसा ही मामला उजागर हुआ था. एक ही वर्ष में दो-दो मामले सामने आने से राज्य की स्कूल परीक्षा की विश्वनीयता भी खतरे में पड़ गई थी. पिछली बार की इन कड़वी यादों को ध्यान में रखते हुए इस बार शिक्षा मंडल के अध्यक्ष ने कुछ ज्यादा ही एहतियात बरतने के आदेश दिए है. कहा भी गया है की दूध का जला छाछ भी फूंक फूंक कर पीता है. ऐसा होना भी चाहिए. कम से कम छत्तीसगढ़ जैसे नए राज्य में तो और भी सावधानी रखने की जरुरत है. पहले जब कभी भी, कोई गडबडी या भ्रष्टाचार का मामला उजागर होता था, तो सभी आँख मूंदकर बिहार को गाली देते थे. अब पी.एस.सी से लेकर शिक्षाकर्मी की परीक्षा तक विभिन्न भारतियों में गडबडी के आरोप लगते रहते हैं. इन्ही कारणों से छत्तीसगढ़ का नाम भी भ्रस्टाचार करने वाले राज्यों की सूची में शामिल हो गया है. जाहिर है इस छवि को जितनी जल्दी तोड़ दिया जाए, उतना ही बेहतर होगा. वरना, यहाँ के ईमानदार और प्रतिभाशाली विद्यार्थियों की सफलता को भी शक की नजर से देखा जाएगा. यह स्थिति वाकई बेहद खतरनाक और निराशाजनक होगी. अगर इसी बात को ध्यान में रखकर शिक्षा मंडल इस बार अतिरिक्त सावधानी बारात रहा है, तो इसका स्वागत किया जाना चाहिए. अनुशासन और सख्ती की बुनियाद पर ही शिक्षा की ईमानदार और भरोसेमंद ईमारत खड़ी की जा सकती है. जो इस अधिकारी और कर्मचारी सख्ती का विरोध करें, उन्हें परीक्षा संचालित करने की व्यवस्था से अलग रख दिया जाए, लेकिन इस अनुशासन में कोई समझौता न किया जाए, तभी छत्तीसगढ़ की स्कूल शिक्षा पर पिछले साल लगा हुआ दाग धुल पायेगा.

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विद्यार्थी पढ़ाई करें, या आन्दोलन ?

विद्यार्थी पढ़ाई करें, या आन्दोलन ?
इस बात से किसी को भी इनकार नही होगा कि छत्तीसगढ़ में विगत आठ वर्षों के दौरान शिक्षा का विस्तार तेजी से हुआ है. लेकिन इसी दरम्यान कई बार ऐसा भी अप्रिय अवसर आया है, जब नई संस्थाओं को मान्यता के लिए तमान तरह कि दिक्कतें पेश आई हैं. कई बार प्रायवेट संस्थाएं भी मान्यता कि शर्तों को पूरा करने में ढिलाई बरतने लगती हैं. ऐसी संस्थाओं का ज्यादा ध्यान केवल फीस के रूप में मोटी रकम बटोरने में ही रहता है. यह निश्चित रूप से विद्यार्थोयों के साथ एक तरह का चल और धोखा है, जो ऊंचे ऊंचे सपने लेकर प्रोफेशनल कोर्स में दाखिला लेते हैं. रायपुर के सरकारी डेंटल कॉलेज में भी इन दिनों मान्यता बचाए रखने का संकट छाया हुआ है. कॉलेज के विद्यार्थी पढ़ाई छोड़कर धरना और आन्दोलन करने पर मजबूर हैं. आख़िर उनके महत्पूर्ण समय की किसे चिंता है ? विद्यार्थोयों का आरोप है कि उन्हें कॉलेज की मान्यता के बारे में स्पष्ट रूप से कुछ नही बताया जा रहा है और इसी वजह से वे पोस्ट ग्रेजुएट की कक्षा में भी दाखिला नही ले पा रहे हैं. दुखत पहलू तो यह है कि राज्य सरकार के चिकित्सा शिक्षा विभाग से भी विद्यार्थियों को केवल आश्वासन दिया जा रहा है. डेंटल कॉलेज में पढने वाले विद्यार्थियों का आक्रोश अब बढ़ने लगा है. ऐसे में राज्य सरकार के प्रतिनिधियों को स्वयं पहल करके यह देखना चाहिए कि परीक्षा के इतने महत्पूर्ण समय में विद्यार्थियों के साथ किसी तरह का अहित न हो और उनका कैरियर भी सुरक्षित रहे. जब सरकारी शिक्षा संस्थाएं अपना काम-काज साफ़ और पारदर्शी रखेंगी, तभी तो प्रायवेट संस्थाओं पर सख्त निगरानी राखी जा सकेगी. वरना शिक्षा के नाम पर विद्यार्थियों के कैरियर से खिलवाड़ ही चलता रहेगा.
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