Monday, May 6, 2013

हैट्रिक की उम्मीद में यात्रा पर निकले डॉ. रमन

हैट्रिक की उम्मीद में यात्रा पर निकले डॉ. रमन

देशाटन और तीर्थाटन की सदियों पुरानी परम्परा वाले इस प्रदेश में एक और यात्रा शुरू हो गई है. अब यह बात अलग है कि प्रदेश के मुखिया डॉ रमन सिंह की इस यात्रा को विकास यात्रा का नाम दिया गया है. वैसे राजनीतिक हलकों में यूं भी माना जा रहा है कि वास्तव में यह कांग्रेस की परिवर्तन यात्रा के जवाब में निकाली गई यात्रा है, जिसके जरिये मुख्यमंत्री सत्ता में हैट्रिक की उम्मीद को पुख्ता करना चाहते हैं. वजह एक हो या एक से अधिक,  इतना तो साफ दिखाई देता है कि सत्ताधारी भाजपा और मुख्य विपक्षी दल कांग्रेस के बीच अब चुनावी जंग छिड़ चुकी है.
विकास की राजनीति का दावा करने वाले डॉ रमन सिंह ने पिछले दिनों भाजपा कार्यसमिति की बैठक में अपने  कार्यकर्ताओं के बीच पूरे आत्मविश्वास से कहा था कि चाहे कांग्रेस की जानिब से कोयला घोटाला, खनिज पट्टा, एनीकट निर्माण या दीगर मामलों में कितने ही आरोप लगाए जाएँ, पार्टी को डरने की जरुरत नहीं है, क्योंकि राज्य सरकार ने किसी भी मामले में नियम प्रक्रिया के तहत कि काम किया है. इन आरोपों से अलग एक बात यह भी काबिले-गौर है कि हमारे देश की जनता बुनियादी तौर पर आस्था को विवेक से ऊपर रखती है. यहाँ किसी भी व्यक्ति को परखने से पहले उसकी नीयत देखी जाती है. मुख्यमंत्री अक्सर यह दावा करते हैं कि वे विकास की राजनीति करना चाहते हैं, आरोपों की नहीं. इस बार जनता की बीच जाने से पहले उनकी सरकार ने बुजुर्गों के लिए मुफ्त तीर्थ यात्रा, युवाओं के लिए मुफ्त लैपटाप और टैबलेट वितरण योजना और भारत-दर्शन योजना, धान खरीदी पर बोनस और पंचायत शिक्षाकर्मियों के लिए नियमित शिक्षकों के समान वेतन- जैसी अनेक घोषणाएं की हैं. सरकार में रहने का इतना लाभ तो हर दल को मिलता ही है, कि वह अपने मतदाताओं का विश्वास जीतने के लिए उनके अनुसार कोई योजना शुरू करे और फिर उसी के सहारे सत्ता में वापसी का मार्ग भी प्रशस्त करे. सभी सरकारें यही करती हैं.  केन्द्र में यू.पी.ए. सरकार भी इसी कवायद में जुटी हुई है.
इस नजरिये से देखा जाए तो विकास यात्रा पर निकलना रमन सरकार की हिम्मत को भी दर्शाता है कि वे अपनी  योजनाओं और फैसलों पर जनता से प्रतिपुष्टि (फीडबैक) प्राप्त करना चाहते हैं. किसी भी लोकतान्त्रिक सरकार के लिए जनसंपर्क अभियान, उसके कामकाज को परखने का, निहायत ही जरूरी पहलू होता है. अगर रमन सिंह यह जानना चाहते हैं कि उनकी सरकार की विभिन्न योजनाओं और फैसलों पर प्रदेश की जनता क्या सोचती है,तो इसमें हाय-तौबा मचाने की कोई तार्किक वजह नजर नहीं आती. ऐसा भी नही है कि राज्य सरकार पहली बार किसी यात्रा पर निकल रही हो. हर साल गर्मी के दिनों में ग्राम संपर्क अभियान चलाया जाता रहा है. इस बार तो नगर संपर्क अभियान भी चलाया गया. बेशक, कांग्रेस के नेताओं ने कल ही चेताया था कि रमन सरकार को विकास यात्रा के दौरान जनता के विरोध का सामना भी करना पड़ सकता है. अगर ऐसा है, तो इसमें भी गलत क्या है ? जनता को कोई योजना ठीक नहीं लगी होगी, तो जनता उस पर अपनी प्रतिक्रिया देने के लिए स्वतंत्र है. और फिर रमन सिंह इसी  प्रतिक्रिया को जानने के लिए ही तो विकास यात्रा पर निकले हैं. हर जगह, हर व्यक्ति, किसी भी सरकार की हर-एक योजना को पसंद ही करे, यह जरुरी तो नहीं. ऐसे में डॉ रमन सिंह, चुनाव के थोडा पहले, इस विकास यात्रा के जरिये जनता का मन टटोलने कि कोशिश कर रहे हैं. आगे जो भी प्रतिक्रिया मिलेगी, उसके अनुसार संभव है कि सरकार के कुछ फैसलों में तब्दीली भी करनी पड़े. जनता की जरुरत के लिए ऐसा करना पड़े, तो अवश्य किया जाना चाहिए. इसमें सरकार को किसी तरह का संकोच नहीं होना चाहिए. विकास यात्रा के सन्दर्भ में, या यूं कहिये कि किसी नए कार्य के लिए, महात्मा गाँधी का सूत्र वाक्य यहाँ बहुत मौजूं मालूम पड़ता है.  वे कहते थे- हर नए  काम कि शुरू में उपेक्षा होती है. फिर भी वह काम जारी रहे, तो उसकी आलोचना होती है. इसके बाद भी काम जारी रहे, तो उसका विरोध होता है. जब इतने के बाद भी काम बंद नहीं हो, तो फिर मजबूर होकर लोगों को उसे स्वीकार करना ही पड़ता है. दो बार चुनाव जीतने वाले  डॉ रमन सिंह का संकल्प निश्चित रूप से बहुत प्रबल होगा- इसमें कोई संदेह नहीं. शायद उनके मन में कुछ ऐसे ही भाव उमड़ रहे होंगे, जो इन पंक्तियों में बयान होता है-  
          
हमने ये शाम चिरागों से सजा रखी है
शर्त लोगों ने हवाओं से लगा रखी है
अंजाम की फ़िक्र तो हम भी कहाँ करते हैं
हमने भी जान हथेली पे उठा रखी है
  

Tuesday, April 30, 2013

छत्तीसगढ में मनरेगा--अब इस सफलता को तो ‘राजनीतिक’ नहीं कह सकते....


छत्तीसगढ को मनरेगा में देश में मिला दूसरा स्थान


अब इस सफलता को तो ‘राजनीतिक’ नहीं कह सकते....

छत्तीसगढ को महात्मा गाँधी राष्ट्रीय रोजगार गारंटी योजना को लागू करने वाले सफल राज्यों की सूची में दूसरा स्थान मिला है. प्रदेश कांग्रेस के नेताओं के लिए फिर एक नई मुश्किल खडी हो गई है. परिवर्तन यात्रा और घर-घर  कांग्रेस अभियान में इन दिनों कांग्रेस के पदाधिकारी राज्य सरकार को कोस-कोस कर गाली दे रहे हैं. राज्य सरकार पर कोयला घोटाले सहित अनेक आरोप भी लगा रहे हैं.
लेकिन जैसे ही कांग्रेस के नेता राज्य सरकार पर आरोपों का सिलसिला शुरू करते हैं. उन्ही की केन्द्र सरकार, छत्तीसगढ़ में किसी न किसी केन्द्रीय योजना को लेकर रमन सरकार की पीठ थपथपा देती है. अब इसे क्या कहा जाये. भावावेश में कुछ लोग कहेंगे- रमन सिंह मुकद्दर के सिकंदर हैं. कुछ की दलील होगी- रमन सिंह ने केन्द्रीय मंत्रियों से निजी जनसंपर्क बहुत अच्छा मेन्टेन किया है. कुछ कांग्रेसी नेता अपने बड़े नेताओं और मंत्रियों के खिलाफ सीधे नाराजगी नहीं दिखा पाएंगे तो कहेंगे, राज्य सरकार ने केन्द्र को गलत आंकड़े प्रस्तुत करके यह सम्मान हासिल किया है. पहले भी केन्द्र की कुछ और योजनाओं पर मिली सफलता के लिए कांग्रेस की जानिब से यही तर्क दिया जा चुका है. इसलिए इस बार भी कुछ ऎसी ही प्रतिक्रिया आने की उम्मीद है.
सवाल यह नहीं है कि रमन सरकार ने केन्द्र की किसी योजना को अच्छे ढंग से लागू करते हुए, अपने विरोधी दल की सरकार से कैसे वाहवाही लूट ली. बल्कि इस सवाल से भी बड़ी बात यह है कि राज्य में इस समय विकास की योजनाओं पर सूचना तकनीकी का इस्तेमाल बखूबी किया जा रहा है. चिप्स की मदद से इसे अंजाम दिया गया है, और इस तरह गडबडी को न्यूनतम रखने के प्रयास किये गए हैं. शिकायत पर तुरंत कार्रवाई भी होती है. इससे निचले स्तर से मंत्रालय स्तर तक एक एक पल की निगरानी हो पा रही है. मनरेगा में भी छत्तीसगढ को आदर्श राज्य मानकर यू. पी.ए. सरकार ने पहले भी राष्ट्रीय विकस परिषद की बैठकों में अन्य राज्यों के मुख्यमंत्रियों को यह सुझाव दिया था कि वे अपने यहाँ भी छत्तीसगढ के ढांचे को लागू करें. इस बार भी छत्तीसगढ को मनरेगा में देश भर में  दूसरा स्थान मिला है. यह कामयाबी पिछले पांच साल में इस योजना के तहत किये गए सभी कार्यों के सम्मिलित मूल्यांकन के अधर पर मिली है. यानि, बकौल केन्द्र सरकार- पिछले पांच साल में छत्तीसगढ ने मनरेगा में बेहतरीन काम किया है. आंकड़ों की जुबानी इसे यूं साबित किया जा सकता है कि –राज्य में मनरेगा के तहत पांच सालों में तीन लाख इक्यानबे हजार दो सौ पैतीस कार्य पूरे किये गए हैं. खास बात यह है कि इसमें से एक लाख इक्कीस हजार कार्य आदिवासी बहुल इलाकों में किये गए. इस आंकड़े से यह भी साबित होता है कि राज्य सरकार ने नक्सल प्रभावित इलाकों में ही करीब चालीस प्रतिशत कार्य कराये हैं.         
इस कामयाबी का सीधा असर अभी भाजपा और कांग्रेस के चुनावी अभियान पर भी पडेगा. अब जब कांग्रेस का घर घर अभियान चलेगा तो प्रदेश के नेता राज्य सरकार पर यह आरोप नहीं लगा पाएंगे कि छत्तीसगढ में केन्द्र की राशि का सदुपयोग नहीं हो पाता. उधर भाजपा भी अपने चुनावी अभियान में इस बात को गर्व से बताएगी कि राज्य में कांग्रेस के नेता जो भी आरोप लगाएं, यह तो उनकी मजबूरी है. लेकिन सच्चाई तो यही है कि उन्ही की सरकार से राज्य को लगातार तारीफ मिल रही है. ऐसे में प्रदेश के कांग्रेसी नेताओं का भाजपा के खिलाफ अभियान निश्चित ही कमजोर पड़ेगा. दूसरी तरफ मुख्यमंत्री डॉ रमन सिंह जब छः मई से विकास यात्रा शुरू करेंगे तो  तो कांग्रेसी आरोपों के जवान में यू. पी.ए. सरकार से मिले तारीफ़ के तमगे को जोर-शोर से दिखाएँगे. तब कोई यह भी नहीं कह पायेगा कि यह कामयाबी ‘’राजनीतिक’’ है.       
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Sunday, April 28, 2013

आज ‘’धान के कटोरे’’ की चमक देखेगी सारी दुनिया



आज ‘’धान के कटोरे’’ की चमक देखेगी सारी दुनिया

प्रदेश में हर तरफ सनसनी छाई हुई. कहने को बहुत कुछ है. प्रदेश में कांग्रेस की परिवर्तन यात्रा निकल रही है. प्रदेश के मुखिया हैट्रिक की उम्मीद के पंख लगाकर विकास यात्रा पर निकलने वाले हैं. हजारों शिक्षाकर्मी तनख्वाह बढ़ने का जश्न मना रहे हैं. इन सब ख़बरों के बीच भी रायपुर जैसे ठहर जाने को बेताब है. अभी किसी को कुछ और नहीं सूझ रहा है. मंत्री, अधिकारी, मोहल्ले के नेता और युवा पदाधिकारियों, छात्रों या फिर राह चलते किसी से भी इन दिनों आप और किसी बड़े, जरुरी या गंभीर मुद्दे पर बात ही नहीं कर सकते. कुछ पूछो तो एक ही रटा-रटाया जवाब आता है- “आई.पी.एल. के बाद”.
क्या जुनून है, और हो भी क्यों न? आई.पी.एल. मतलब- घनी रात के बीच, कृत्रिम श्वेत-धवल रोशनी में क्रिकेट; नृत्य और ठुमके के साथ खूबसूरत अदाओं की बिजली गिराने वाली चीयर गर्ल्स; रंगीन कपड़ों में मैदान पर चौके-छक्के जड़ने वाले ‘’सितारा’’ की हैसियत रखते खिलाडी, कमेंटेटर की भूमिका में नजर आती कालर-बोन दिखाने वाली नव-यौवना माडल और मैदान पर फील्डिंग करते खिलाड़ी से लाईव (सीधी) बात करते हुए एंकर. भला एक साथ इतना रोमांच और कहाँ मिलता है? पैसे की चमक और खनक से सांस लेने वाले बाज़ार की टकसाली जुबान में इसे ही तो कहते हैं- पैसा वसूल.
अभी तक यही सब कुछ हम सब केवल टेलीविजन के परदे पर ही देख रहे थे. लेकिन आज छत्तीसगढ़ में इतिहास लिखा जा रहा है. कौतूहल से लबरेज और परी-कथाओं की कल्पना से भी खूबसूरत ग्लैमर का  रंगमंच, यानी आई.पी. एल. तिलस्मी जादू आज समूचे छत्तीसगढ पर छा चुका है.  
कभी हाकी की नर्सरी की पहचान रखने वाला छत्तीसगढ आज क्रिकेट के खुमार में डूबा हुआ है. अभी तक जिस राज्य की स्वतंत्र रणजी टीम नहीं बन पाई है, वही छत्तीसगढ आज आई.पी.एल. जैसे अहम  चैम्पियनशिप का गौरवशाली आयोजन कर रहा है. मुख्यमंत्री और उनके मंत्री-अधिकारी के साथ क्रिकेट संघ और प्रशासन सभी की प्रतिष्ठा दांव पर लगी हुई है. वाकई, क्रिकेट के अवतार और ग्लोबल ब्रांड सरीखे नामी करीब पचास खिलाडी, दो से तीन हजार अंतरराष्ट्रीय हस्तियों का क्रिकेट परिवार और कारपोरेट कल्चर के नव-धनाड्य नुमाइंदे- ये सभी आज उसी रायपुर में जमा हो रहे हैं, जिसे कभी  पिछड़े कहे जाने वाले छत्तीसगढ की देहात जैसी बस्ती का उपनाम दिया जाता था. यकीनन, समय करवट ले रहा है. छत्तीसगढ को अब खेल से प्रतिष्ठा और मुकाम दोनों मिल रहा है. आज के बाद रायपुर वैसा नहीं रह जायेगा, जैसा वह अब तक रहा है. मुख्यमंत्री और उनका सरकारी तंत्र सभी इस लम्हे को यादगार बनाने के लिए रात-दिन एक किये हुए हैं. हो सकता है कि बहुतों के लिए रायपुर में आई.पी.एल.  मैचों का आयोजन एक तमाशे से ज्यादा और कुछ न हो, लेकिन राज्य के बहुत बड़े हिस्से के लिए यह जीने-मरने के सवाल से भी कहीं कमतर नहीं है- गोया, उनकी जुबान पर इस वक्त यही अलफ़ाज़ अंगडाइयां ले रहे होंगे कि -    
  
तुझे क्या सुनाऊँ ऐ दिलरुबा, तेरे सामने मेरा हाल है.
तेरी इक निगाह की बात है, मेरी ज़िंदगी का सवाल है  
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Saturday, April 27, 2013

शिक्षाकर्मियों को मुद्दा बनाने की ख्वाहिश भी रह गई अधूरी..



शिक्षाकर्मियों को मुद्दा बनाने की ख्वाहिश भी रह गई अधूरी....

शिक्षाकर्मियों के मुद्दे पर पिछले पांच महीनों से विपक्ष की आलोचना झेल रही राज्य सरकार ने आखिरकार कांग्रेस से यह मुद्दा भी छीन लिया. कल देर रात मुख्यमंत्री डॉ रमन सिंह ने जिस तरह मुख्यसचिव की अध्यक्षता में तुरंत बैठक बुलाकर रिपोर्ट मांगी और फिर वहीं घोषणा भी कर दी, उससे यह अंदाजा लगाया जा सकता है कि राजनीति में रमन सिंह की चाल सबसे अलग होती है. अभी कुछ दिनों पहले तक कांग्रेस ने शिक्षाकर्मियों के मुद्दे पर एक से बढ़कर एक दावे किये थे. यहाँ तक कि आंदोलन में भी अजित जोगी, नन्दकुमार पटेल और रविन्द्र चौबे ने भी आन्दोलन में शामिल होकर पूरी ताकत से यह कहा था उनकी सरकार आते ही शिक्षाकर्मियों का संविलयन किया जायेगा और उन्हें छठा वेतनमान भी दिया जायेगा. जोगी ने अपने लहजे में वचन दिया कि कांग्रेस की सरकार बनते ही वे पहला दस्तखत शिक्षाकर्मियों के संविलयन के आदेश पर करेंगे.
उस समय शिक्षाकर्मियों के आंदोलन को प्रशासन से कुचलने के आरोप भी लगे. इसका विरोध भी हुआ. ढाई महीने से चला आ रहा आंदोलन अचानक वापस ले लिया गया. आन्दोलन की वापसी के तरीके पर भी कई सवाल  किये जाने लगे. लोगों में ऐसी चर्चा भी थी कि शिक्षाकर्मियों का आन्दोलन चलाने वालों ने कुछ बड़े नेताओं से निजी लाभ ले लिया होगा. इससे भी जनता में राज्य सरकार के प्रति गहरी नाराजगी देखी गई.
कांग्रेस को लगा था कि दो लाख शिक्षाकर्मियों के आन्दोलन में शामिल होने से अगले चुनाव में एक बड़ा मुद्दा हाथ लग सकता  है और आगामी विधानसभा चुनाव के परिणाम को भी अपने पक्ष में पलटा जा सकता है. दूसरी तरफ भाजपा सरकार के रणनीतिकार यह सोच रहे थे कि यदि आन्दोलन को खत्म कराकर उसी समय मांग पूरी कर दी जाती, तो कांग्रेस इसका श्रेय लूट ले जायेगी और तब भी चुनाव में भाजपा को ही नुकसान होगा. मांग नही पूरी करने पर शिक्षाकर्मियों के साथ-साथ जनता भी राज्य सरकार को –जनविरोधी- मान बैठेगी. ऐसे में उस वक्त आंदोलन को खत्म कराना ही एकमात्र उपाय लगा. सरकार ने सख्ती दिखाते हुए हजारों शिक्षाकर्मियों को बर्खास्त  कर दिया और सबका गुस्सा भी मोल ले लिया. भला हो कि निराश होकर शिक्षाकर्मियों ने खुद ही बुझे मन से आंदोलन खत्म कर दिया. लेकिन डॉ रमन सिंह शायद उस आंच के ठन्डे होने का इन्तजार कर रहे थे.
इस बीच एक नए सम्झौताकार के रूप में राजनांदगांव के सांसद मधुसूदन यादव भी परदे पर उभरने लगे. उन्होंने दो- तीन बार शिक्षाकर्मियों की सरकार से बात कराई. पहले उन्होंने बर्खास्त शिक्षाकर्मियों को बहाल कराने का रास्ता खोला. माहौल अनुकूल होते ही उन्होंने बाक़ी मांगों पर भी पहल की.
अब जबकि चुनाव नजदीक आ रहे हैं और मुख्यमंत्री को आगामी ६ मई से विकास यात्रा भी शुरू करनी है. इस बीच कांग्रेस ने १२ अप्रैल से शुरू हुई अपनी परिवर्तन यात्रा में इस मुद्दे को पहले ही प्रमुखता से उठाना शुरू कर दिया था. समय  की नब्ज को भांपते हुए रमन सिंह ने कल ही मुख्य सचिव की समिति से रिपोर्ट देने को कह दिया और कल ही उस पर मुहर भी लगा दी.
इस बीच प्रदेश के कुछ कर्मचारी नेताओं ने भी शिक्षाकर्मियों के पदाधिकारियों को साफ़ तौर पर समझाने का प्रयास किया कि पंचायत भर्ती अधिनियम के मौजूदा स्वरुप में संविलयन बिलकुल नामुमकिन है. हाँ अगर सरकार चाह्हे तो इस कानून में संशोधन करने के बाद संविलयन कि व्यवास्ता हो सकती है. इस लिहाज से यह भी कहा जा सकता है कि चुनाव के पहले भाजपा के घोषणा पत्र में संविलयन का वादा भी तकनीकी रूप से सही नही था.             
आखिरकार रमन सिंह ने तमाम स्थितियों को ध्यान में रखते हुए शिक्षाकर्मियों के वेतन को सम्मानजनक स्तर तक पहुँचाने के फैसले पर अपनी मुहर लगा दी. कल रात इस पूरी प्रक्रिया के लिए सरकार ने तो तेजी दिखाई, उससे यह भी समझा जा सकता है कि अगर सरकार कुछ करना चाहे तो उसे अपने ही बनाये नियमों के तहत ऐसा करने से भला कौन सी ताकत रोक सकती है.     
यूं भी शिक्षाकर्मियों का तनख्वाह बढाने की मांग हर नजरिये से जायज थी. पिछले तीन-चार सालों के दौरान केन्द्र सरकार ने लगभग सभी आवश्यक चीजों के दाम बढाए हैं. ऐसे में केवल छः से दस हजार रुपयों में महीने भर का घर-खर्च चलाना, वास्तव में तलवार की धार पर चलने जैसा कठिन काम हो गया है. रमन सरकार ने लाखों आंदोलनकारियों की इस तकलीफ को समझते हुए, ठीक समय पर फैसला लेकर, एक तरह से, विरोध की दबी हुई चिंगारी को शांत करने का ही प्रयास किया है. खास तौर पर तब, जबकि, पिछले महीने ही विधायकों और मंत्रियों की तनख्वाह में हजारों रुपये की बढोत्तरी की गई है.  
ऐसे में यदि दस हजार रुपये में अपना घर चलाने वाले लाखों शिक्षाकर्मियों की मांगों पर कुछ नहीं किया जाता, तो इस आक्रोश से, सत्ता में लौटने की हैट्रिक लगाने की अभिलाषा भी प्रभावित हो सकती थी.  सरकार ने जो कदम उठाये हैं, उससे न सिर्फ कांग्रेस के हाथ से एक पका-पकाया चुनावी मुद्दा भी फिसल गया है, बल्कि राज्य सरकार लोगों की इस शिकायत से भी बच गई कि..

किसी के एक आंसू पर हजारों दिल तडपते हैं         
किसी का उम्र भर रोना यूं ही बेकार जाता है       
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Wednesday, February 16, 2011

कुछ याद उन्हें भी कर लो

गणतंत्र दिवस के बहाने....
कुछ याद उन्हें भी कर लो
--विभाष कुमार झा
जुल्मे- ला इन्तेहाँ से तंग आकर, आदमी चाहता है आजादीहोके आज़ाद फिर वो दूसरों की, छीनना चाहता है आजादी
अपने दौर के जाने-माने शायर जोश मलीहाबादी की ये पंक्तियाँ भले ही भारत के स्वाधीनता आन्दोलन के दिनों में लिखी गई होंगी, लेकिन आज के हालात पर भी ये पंक्तियाँ उतनी ही मौजूं हैं, जितनी उस दौर में थीं. यकीनन आज देश एक बार फिर किसी और अर्थ में गुलामी की जकड़न में कैद होता जा रहा है. भारत देश को एक सम्पूर्ण प्रभुत्व संपन्न गणतंत्र राष्ट्र बने अब पूरे बासठ बरस हो चुके हैं. इन बासठ वर्षों में हमने एक देश के रूप में जो पाया और विकास के सप्नूं को पूरा करने में हम जहां तक पहुंचे , उसे देखकर यह लगता है कि हम अभी भी अपने लक्ष्य से काफी पीछे हैं. देश में जिस तरह से मंहगाई दिनों-दिन बेताहाशा बढ़ रही है और जिस तेजी से भ्रष्टाचार अपनी जड़ें पसार रहा है, उससे दुनिया भर में भारत की छवि निश्चित रूप से खराब हो रही है. चाहे बात राष्ट्रमंडल खेलों की हो या आदर्श हाऊसिंग घोटाले की या फिर टू-जी स्पेक्ट्रम घोटाले की, हर मामले में सता और पूंजीपतियों के साथ उद्योग घरानों का खतरनाक मेल-जोल आम आदमी को बेहद निराश करने वाला है. जिस तरह से पैसे के जोर पर पूरी सता को अपने हित में इस्तेमाल करने का खेल चल रहा है, उससे ऐसा लगता है की अब इस देश में आम माध्यम वर्ग या निछले तबके के लिए आशा की कोई किरण शायद ही कहीं से फूटे. इस कुंठित करने वाली परिस्थिति के बीच जो व्यक्ति केवल अपने कुछ हज़ार रुपये के वेतन केसहारे घर परिवार का भरण पोषण करने की चिंता में दिन रात मेहनत कर रहा है, उसके लिए उम्मीद की कोई रौशनी दूर दूर तक नजार नहीं आती. हर तरह से लचर परेशान और आर्थिक तंगी का शिकार व्यक्ति ऐसे में अगर सता के खिलाफ विद्रोही हो जाए तो भला इसमें कैसा आश्चर्य?. अखबारों में अब हम भ्रष्टाचार की ख़बरों को पढ़कर पहले की तरह उद्वेलित नही होते. एक समय था जब केवल ६० करोड़ के बोफोर्स घोटाले ने केंद्र की सता को पलट दिया था. अब हज़ारों करोड़ के टू जी स्पेक्ट्रम घोटाले के बाद भी सता को अनच तक नहीं आती. क्योंकि इस खेल में मीडिया के कुछ लोग भी कठपुतली बनकर खेलने को उतावले हो गए हैं. पिछले दिनों जो टेप उजागर हुए हैं, उनमे हुई बातचीत से तो यही लगता ही अब इस देश में रक्षक ही भक्षक बनने को बेताब हो रहा है. कवि गोपालदास नीरज ने बरसों पहले लिखा था- जो लूट लें कन्हार ही दुल्हन की पालकी हालत ये आज है मेरे हिन्दुस्तान की यह कितनी शर्म की बात है कि आज़ाद देश में रहते हुए भी हमें आज एक बार फिर उन्ही पंक्तियों को दोहराना पड़ रहा है. लेकिन यह बात भी सच है कि देश के आम नागरिकों के धैर्य की अंतिम सीमा अब समाप्त होने को है, और जैसे ही यह सीमा समाप्त होगी, देश में युवा वर्ग एक बार फिर क्रांतिकारी बदलाव के लिए कमर कस कर आगे आयेगा जरूर. बस उस घड़ी का ही इंतज़ार है....
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Sunday, June 27, 2010

क्या नियम सिर्फ बेवकूफों के लिए ही होते हैं ?

अभी पिछले कुछ दिनों से छत्तीसगढ़ में भ्रष्टाचार की ख़बरें बहुत अधिक सुनी और पढी जा रही हैं। दो महीने पहले तक राज्य सरकार के कृषि विभाग में प्रमुख सचिव और पूर्व स्वास्थ्य सचिव बी एल अग्रवाल के कथित भ्रष्टाचार के कारनामों से अखबारों के पन्ने भरे होते थे। यहाँ तक कहा गया कि उनके चार्टर्ड एकाउंटेंट ने दो सौ चालीस से ज्यादा फर्जी नामों से खाते खुलवाए थे। इनमे करीब तीन सौ करोड़ रुपये की गड़बड़ी की बात उजागर हुई थी। लेकिन थोड़े समय तक निलंबित रहने के बाद एक बार फिर यही अध्दिकारी अपनी नौकरी बहाल कराने में कामयाब रहे।
मुझे और मेरे कुछ मित्रों को यह समझ में नहीं आया कि यदि छापे की कार्रवाई सही थी तो फिर बाद में इनके खिलाफ एक भी पर्याप्त सबूत कैसे नहीं मिले और कमजोर केस होने के कारण अधिकारी को अंततः बहाल होना पडा। दूसरी तरफ यदि छपे के पीछे पुख्ता प्रमाण मौजूद थे तो फिर आगे कारवाई क्यों नहीं हुई ?

कुछ समय पहले एक प्रभावशाली विधायक के भाई के घर छापे में करीब दस करोड़ रुपये की अनुपातहीन संपत्ति मिली थी। आर्थिक अन्वेषण ब्यूरो ने छापा भी मारा। लेकिन बाद में पाता चला कि उस व्यक्ति के खिलाफ कोई कारवाई नहीं हुई।
अभी भाजपा और कांग्रेस के कुछ स्थानीय पदाधिकारियों के ठिकानों पर आयकर विभाग छापे की कार्रवाई कर रहा है। इस बार भी शहर में आम चर्चा यही है कि थोड़े दिन अखबार और अन्य मीडिया में छपी ख़बरें चटखारे लेकर छापी जायेंगी। उसके बाद लोग इस बात को भूल जायेंगे। तब पार्टी और प्रशासन इन बदनाम हो चुके लोगों को अपना पक्ष रखने का अवसर देगा. fiलहाल इससे निजात मिलती हुई दिखाई नहीं देती ।




बशीर बद्र के शेर का दूसरा मिसरा याद आ रहा है

बेगुनाह कौन है इस शहर में कातिल के सिवा ?

Tuesday, January 5, 2010

जिस शाख पे बैठे हो, वो टूट भी सकती ..

छत्तीसगढ़ में नगरीय चुनाव परिणाम के निहितार्थ--
जिस शाख पे बैठे हो, वो टूट भी सकती ..

छत्तीसगढ़ में हाल ही में हुए नगरीय निकाय चुनाव में भाजपा को राजधानी रायपुर सहित राजनांदगांव और बिलासपुर के महापौर पद के निर्वाचन में करारी हाल का सामना करना पडा. इस फैसले से यह तो स्पष्ट हो गया है कि अब छत्तीसगढ़ में भारतीय जनता पार्टी को अपने शासन के तौर तरीके में समय रहते बदलाव लाना होगा. अन्यथा मतदाता का मन बदलते देर नहीं लगेगी. हारने पर आत्मनिरीक्षण और जीतने पर जश्न की प्रतिक्रिया तो हर चुनाव के बाद मिल ही जाती है. यहाँ इसके कुछ आगे की बात पर विचार करना है. यह सच है कि स्थानीय चुनाव में मुद्दे वैसे नहीं होते जैसे, विधान सभा या लोक सभा चुनाव में होते हैं. स्थानीय चुनाव में व्यक्ति की अपनी छवि भी अहम् होती है. परती चाहे कोई भी हो, मतदाता ने यह बात बड़ी शिद्दत से महसूस की, कि अक्सर पार्षद या महापौर पद के विजेता उम्मीदवार पद पर आते ही पहला कार्य पैसा कमाने का करते हैं. कल तक साधारण से मकानों में रहने वाले कुछ पार्षद अगर पांच साल में ही लखपति (कुछ लाख रूपये की संपत्ति वाले) बन जाएँ, तो मतदाता को यह साफ़ दिखाई देने लगता है कि अमुक पार्षद ने वार्ड का नहीं, बल्कि अपना ही विकास किया है. इसी तरह महापौर पद के उम्मीदवार से भी यह अपेक्षा की जाती है कि वह शहर को आशा के अनुरूप विकास के रास्ते पर ले जाने की कल्पना को साकार करे. लेकिन यहाँ भी जब उसे निराशा मिले तो वह अपना ब्रह्मास्त्र चलाने से नहीं चूकता. रायपुर को धूलमुक्त शहर बनाने का वादा पिछले चुनाव में किया गया था. पांच साल में शहर से धूल तो नहीं हटा, उलटे रायपुर को देश के सबसे ज्यादा प्रदूषित शहर का सम्मान (?) जरुर मिल गया. ऐसे में मतदाता के पास नए विकल्प को तलाशने के सिवाय कोई सहारा ही नहीं रह जाता. अगर नए विजेता उम्मीदवारों ने भी केवल कथनी को ही तेज रखा और पिछले उम्मीदवारों की नाकामी से सबक नहीं लिया तो आने वाले चुनाव में इनका अंजाम भी आज के पराजित उम्मीदवारों की तरह ही होगा, यह निश्चित है.
दुर्भाग्य यही है कि लोकतंत्र में अधिकांश विजेता प्रत्याशी अभी तक लोकतंत्र को जीवन शैली में उतारने में पूरी तरह से असफल रहे हैं. इसीलिए एक बार चुनाव जीतने पर खुद को हिटलर, सिकंदर और संभवतः चक्रवर्ती सम्राट भी समझने लगते हैं. बस यहीं से उनकी हर सफलता, आगे चलकर उनकी सबसे बड़ी असफलता के रूप में उन्ही के सामने खडी होने लगती है. पांच साल के लिए मिली जीत को एक अच्छा अवसर मानकर जो उम्मीदवार कार्य करेगा, उसके लिए जीत का सिलसिला बनाये रखना कोई कठिन कार्य नहीं रह जायेगा. लेकिन बहुत से लोगों को इतनी बेसब्री रहती है- कि अगली बार कहीं मेरी सीट का आरक्षण न बदल जाये, या अगली बार मेरी टिकट न कट जाये- यह सोचकर वे पहली पारी में ही, सात पीढ़ियों के लिए अपना घर भर लेना चाहते हैं. इस प्रवृत्ति से बच गए तो फिर बड़ी कामयाबी भी खुद-ब-खुद क़दमों में आ सकती है.
सबसे बड़ी बात यही है कि, न तो एक चुनाव में हार जाने से भाजपा के लिए "दुनिया" ख़त्म हो गयी है, और न ही एक नगरीय चुनाव में महापौर के तीन अहम पद जीतने पर कोंग्रेस को हमेशा के लिए कोई "स्वर्ण सिहांसन" मिल गया है. अगर इस क्षणिक सफलता से विजेताओं को अपना दिमाग ख़राब नहीं करना हो, और पराजित प्रत्याशियों को एक बार की असफलता से निराशा होकर, गम के अँधेरे में गुम होने से बचना हो, तो जनाब बशीर बद्र का यह शे'र वेद मन्त्र की तरह याद रखना चाहिए

शोहरत की बुलंदी तो,पल भर का तमाशा है
जिस शाख पे बैठे हो, वो टूट भी सकती है..
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