Sunday, June 27, 2010

क्या नियम सिर्फ बेवकूफों के लिए ही होते हैं ?

अभी पिछले कुछ दिनों से छत्तीसगढ़ में भ्रष्टाचार की ख़बरें बहुत अधिक सुनी और पढी जा रही हैं। दो महीने पहले तक राज्य सरकार के कृषि विभाग में प्रमुख सचिव और पूर्व स्वास्थ्य सचिव बी एल अग्रवाल के कथित भ्रष्टाचार के कारनामों से अखबारों के पन्ने भरे होते थे। यहाँ तक कहा गया कि उनके चार्टर्ड एकाउंटेंट ने दो सौ चालीस से ज्यादा फर्जी नामों से खाते खुलवाए थे। इनमे करीब तीन सौ करोड़ रुपये की गड़बड़ी की बात उजागर हुई थी। लेकिन थोड़े समय तक निलंबित रहने के बाद एक बार फिर यही अध्दिकारी अपनी नौकरी बहाल कराने में कामयाब रहे।
मुझे और मेरे कुछ मित्रों को यह समझ में नहीं आया कि यदि छापे की कार्रवाई सही थी तो फिर बाद में इनके खिलाफ एक भी पर्याप्त सबूत कैसे नहीं मिले और कमजोर केस होने के कारण अधिकारी को अंततः बहाल होना पडा। दूसरी तरफ यदि छपे के पीछे पुख्ता प्रमाण मौजूद थे तो फिर आगे कारवाई क्यों नहीं हुई ?

कुछ समय पहले एक प्रभावशाली विधायक के भाई के घर छापे में करीब दस करोड़ रुपये की अनुपातहीन संपत्ति मिली थी। आर्थिक अन्वेषण ब्यूरो ने छापा भी मारा। लेकिन बाद में पाता चला कि उस व्यक्ति के खिलाफ कोई कारवाई नहीं हुई।
अभी भाजपा और कांग्रेस के कुछ स्थानीय पदाधिकारियों के ठिकानों पर आयकर विभाग छापे की कार्रवाई कर रहा है। इस बार भी शहर में आम चर्चा यही है कि थोड़े दिन अखबार और अन्य मीडिया में छपी ख़बरें चटखारे लेकर छापी जायेंगी। उसके बाद लोग इस बात को भूल जायेंगे। तब पार्टी और प्रशासन इन बदनाम हो चुके लोगों को अपना पक्ष रखने का अवसर देगा. fiलहाल इससे निजात मिलती हुई दिखाई नहीं देती ।




बशीर बद्र के शेर का दूसरा मिसरा याद आ रहा है

बेगुनाह कौन है इस शहर में कातिल के सिवा ?

Tuesday, January 5, 2010

जिस शाख पे बैठे हो, वो टूट भी सकती ..

छत्तीसगढ़ में नगरीय चुनाव परिणाम के निहितार्थ--
जिस शाख पे बैठे हो, वो टूट भी सकती ..

छत्तीसगढ़ में हाल ही में हुए नगरीय निकाय चुनाव में भाजपा को राजधानी रायपुर सहित राजनांदगांव और बिलासपुर के महापौर पद के निर्वाचन में करारी हाल का सामना करना पडा. इस फैसले से यह तो स्पष्ट हो गया है कि अब छत्तीसगढ़ में भारतीय जनता पार्टी को अपने शासन के तौर तरीके में समय रहते बदलाव लाना होगा. अन्यथा मतदाता का मन बदलते देर नहीं लगेगी. हारने पर आत्मनिरीक्षण और जीतने पर जश्न की प्रतिक्रिया तो हर चुनाव के बाद मिल ही जाती है. यहाँ इसके कुछ आगे की बात पर विचार करना है. यह सच है कि स्थानीय चुनाव में मुद्दे वैसे नहीं होते जैसे, विधान सभा या लोक सभा चुनाव में होते हैं. स्थानीय चुनाव में व्यक्ति की अपनी छवि भी अहम् होती है. परती चाहे कोई भी हो, मतदाता ने यह बात बड़ी शिद्दत से महसूस की, कि अक्सर पार्षद या महापौर पद के विजेता उम्मीदवार पद पर आते ही पहला कार्य पैसा कमाने का करते हैं. कल तक साधारण से मकानों में रहने वाले कुछ पार्षद अगर पांच साल में ही लखपति (कुछ लाख रूपये की संपत्ति वाले) बन जाएँ, तो मतदाता को यह साफ़ दिखाई देने लगता है कि अमुक पार्षद ने वार्ड का नहीं, बल्कि अपना ही विकास किया है. इसी तरह महापौर पद के उम्मीदवार से भी यह अपेक्षा की जाती है कि वह शहर को आशा के अनुरूप विकास के रास्ते पर ले जाने की कल्पना को साकार करे. लेकिन यहाँ भी जब उसे निराशा मिले तो वह अपना ब्रह्मास्त्र चलाने से नहीं चूकता. रायपुर को धूलमुक्त शहर बनाने का वादा पिछले चुनाव में किया गया था. पांच साल में शहर से धूल तो नहीं हटा, उलटे रायपुर को देश के सबसे ज्यादा प्रदूषित शहर का सम्मान (?) जरुर मिल गया. ऐसे में मतदाता के पास नए विकल्प को तलाशने के सिवाय कोई सहारा ही नहीं रह जाता. अगर नए विजेता उम्मीदवारों ने भी केवल कथनी को ही तेज रखा और पिछले उम्मीदवारों की नाकामी से सबक नहीं लिया तो आने वाले चुनाव में इनका अंजाम भी आज के पराजित उम्मीदवारों की तरह ही होगा, यह निश्चित है.
दुर्भाग्य यही है कि लोकतंत्र में अधिकांश विजेता प्रत्याशी अभी तक लोकतंत्र को जीवन शैली में उतारने में पूरी तरह से असफल रहे हैं. इसीलिए एक बार चुनाव जीतने पर खुद को हिटलर, सिकंदर और संभवतः चक्रवर्ती सम्राट भी समझने लगते हैं. बस यहीं से उनकी हर सफलता, आगे चलकर उनकी सबसे बड़ी असफलता के रूप में उन्ही के सामने खडी होने लगती है. पांच साल के लिए मिली जीत को एक अच्छा अवसर मानकर जो उम्मीदवार कार्य करेगा, उसके लिए जीत का सिलसिला बनाये रखना कोई कठिन कार्य नहीं रह जायेगा. लेकिन बहुत से लोगों को इतनी बेसब्री रहती है- कि अगली बार कहीं मेरी सीट का आरक्षण न बदल जाये, या अगली बार मेरी टिकट न कट जाये- यह सोचकर वे पहली पारी में ही, सात पीढ़ियों के लिए अपना घर भर लेना चाहते हैं. इस प्रवृत्ति से बच गए तो फिर बड़ी कामयाबी भी खुद-ब-खुद क़दमों में आ सकती है.
सबसे बड़ी बात यही है कि, न तो एक चुनाव में हार जाने से भाजपा के लिए "दुनिया" ख़त्म हो गयी है, और न ही एक नगरीय चुनाव में महापौर के तीन अहम पद जीतने पर कोंग्रेस को हमेशा के लिए कोई "स्वर्ण सिहांसन" मिल गया है. अगर इस क्षणिक सफलता से विजेताओं को अपना दिमाग ख़राब नहीं करना हो, और पराजित प्रत्याशियों को एक बार की असफलता से निराशा होकर, गम के अँधेरे में गुम होने से बचना हो, तो जनाब बशीर बद्र का यह शे'र वेद मन्त्र की तरह याद रखना चाहिए

शोहरत की बुलंदी तो,पल भर का तमाशा है
जिस शाख पे बैठे हो, वो टूट भी सकती है..
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