
छत्तीसगढ़ी के लिए पहल और हलचल
छत्तीसगढ़ी बोली को राजभाषा का दर्जा मिलने के बाद से यहाँ के बहुत से संगठन और विशेषग्य अपनी ओर से पहल करने लगे हैं। इसी कड़ी में दो दिनों की गोष्ठी में भी रायपुर में देश भर के कुछ विद्वान आमंत्रित थे. इन सभी ने एक बात बहुत अच्छी कही की बोली के विकास का मतलब यह कदापि नहीं है की हम देश और राष्ट्र भाषा को भूल जाएँ. जब जय हिंद कहा जाता है, तो उसमे जय छत्तीसगढ़ या जय महाराष्ट्र भी अंतर्निहित रहता ही है. इसे अलग से बोलने की जरुरत नहीं होती. लेकिन दुर्भाग्य से पिछले कुछ वर्षों से यह देखा जा रहा है कि जय महाराष्ट्र या जय असम का अर्थ यह लगाया जा रहा है, जैसे अन्य किसी राज्य को इसमें शामिल ही नहीं होने दिया जायेगा. अगर इसी को बोली का विकास कहकर प्रचारित किया जा रहा है, तो यह केवल भ्रम ही है. उसके सिवाय कुछ भी नहीं. आंचलिकता तो भारत की जान है, पहचान है. लेकिन इसका अभिप्राय यह कतई नहीं होता कि इससे अन्य क्षेत्र के प्रति दुश्मनी या अलगाव की भावना को बढावा दिया जाये. निश्चित ही आंचलिक बोलियों को समृद्ध करने के लिए हर स्तर पर प्रयास जरुरी हैं, वर्ना जिस तरह कि भाषा संस्कृति अभी हमारे देश में चल रही है, उसमे यह कोई आश्चर्य नहीं कि आने वाले ५० वर्षों में भारत से बहुत सी बोलियों का अस्तित्व ही समाप्त हो जायेगा. गाँव से जो नयी पीढी शहर आकर अंग्रेजी पढ़ रही है, उसका अपनी स्थानीय बोली से संपर्क टूटता जा रहा है. यह संकट वाकई बहुत गंभीर है. यह सचमुच सराहनीय है कि छत्तीसगढ़ी को लेकर अभी से चिंता होने लगी है. इसी तरह के प्रयास निरंतर होते रहे तो इस बोली को भाषा के रूप में स्थापित होने में देर नहीं लगेगी. इतना जरुर है कि जो लोग इस नयी भाषा कि स्थापना में जुटे हुए हैं, उन्हें हिन्दी या अन्य भाषाओँ के प्रति भी सम्मान को न सिर्फ बताना होगा, बल्कि जन सामान्य के बीच स्थापित भी करना होगा. किसी भी परंपरा के निर्माण में जो लोग बुनियाद के स्तर पर करी करते हैं, उनकी जिम्मेदारी हमेशा बहुत ज्यादा और अहम होती है. छत्तीसगढ़ी के कर्णधारों को भी इस जिम्मेदारी को समझना होगा.------